Sunday, March 1, 2015

अब तक छप्पन 2

फिल्म समीक्षा
सत्ता का अंडरवर्ल्ड 
‘अब तक छप्पन 2‘

धीरेन्द्र अस्थाना

सहारा इंडिया परिवार द्वारा बनायी गयी सुपरहिट फिल्म अब तक छप्पन का यह सीक्वेल भी बेहतर ढंग से बना और बुना हुआ सिनेमा है। हालांकि निर्देशक और प्रोड्यूसर बदल गये हैं लेकिन इस सीक्वेल में भी सहारा मूवीज स्टूडियो को क्रेडिट दिया गया है। अब तक छप्पन जहां खत्म हुई थी उस समय के दस साल बाद के कालखंड पर यह सशक्त सीक्वेल खड़ा हुआ है। मुंबई में बढ़ते क्राइम से चिंतित प्रदेश के गृह मंत्री विक्रम गोखले गोवा के अपने गांव में शांत जीवन बिता रहे एनकाउंटर अधिकारी नाना पाटेकर को फिर से बुला कर हालात संभालने को कहते हैं। नाना मना कर देेते हैं। लेकिन जब नाना का संगीतकार बेटा अमन उनसे कहता है कि मेरे पिता पुलिस हैं वह मछुआरे नहीं हैं जो पूरा पूरा दिन मच्छी पकड़ने में बिता देता है, तो नाना नयी जिम्मेदारी संभालने अपने बेटे के साथ फिर से मुंबई आ जाते हैं। आज के फिल्मी समय में यह जानना दिलचस्प होगा कि फिल्म में ना तो कोई आईटम सोंग है ना ही को लव ट्रैक। सीधे सीधे गुंडों और पुलिस की मुठभेड़ हैं। मुंबई आते ही नाना गुंडों का शूटआउट शुरू कर देते हैं। बदले में उन पर भी हमले होते रहते हैं। पिछली फिल्म में उन्होंने गुंडों के हमलों में अपनी पत्नी को खोया था। इस फिल्म में उनका इकलौता बेटा मारा जाता है। पुलिस विभाग में उनकी इज्जत करने वाले अधिकारी भी हैं तो उनसे जलने वाले भी। नाना किसी की परवाह नहीं करते और अपने जांबाज तथा मुंहफट अंदाज में काम करते रहते हैं। फिल्म में गुलपनाग एक क्राईम रिर्पोटर बनी है लेकिन उसके लिए फिल्म में कोई खास स्पेस नहीं है। राज जुत्शी विदेश में बैठा इंडिया का कुख्यात डॉन है। वह भी जब तब नाना पर हमले करवाता रहता है। नाना प्रदेश के मुख्य मंत्री और गृह मंत्री को अच्छा राजनेता मानता है लेकिन उस वक्त उसके पैरों तले की जमीन खिसक जाती है जब उसे पता चलता है कि सत्ता और अंडरवर्ल्ड का कितना गहरा गठजोड़ है। विदेश में बैठा डॉन राज मंत्री गोखले का आदमी निकलता है जिसने गोखले के कहने पर मुख्य मंत्री का मर्डर करवाया है ताकि गोखले मुख्य मंत्री बन सके । गोखले नाना को बताता है कि उसे तय करना है कि वह उसके साथ आएगा या वापस अपने गांव में जा कर मछली मारेगा। गोखले नाना को बताता है कि एक सफल राजनेता को पुलिस भी चाहिए और माफिया डॉन भी। अंत में मुख्य मंत्री की श्रद्धांजलि सभा हो रही है। गोखले के भाषण के समय नाना भी वहां पहुंचता है। पुलिस कमिशनर गोविंद नामदेव नाना का रिवाल्वर रखवा लेते हैं। भाषण के बाद नाना गोखले के पास पहंुच कर उनके पांव छूता है तो गोखले मुस्कुरा कर कहते हैं अच्छा फैसला किया। वैलकम बैक। नाना मंच से दो शब्द कहना चाहता है और इजाजत मिलने पर कहता है- मैनंे हमेशा छुप कर एनकाउंटर किये ताकि उनका कोई सबूत ना रहे। लेकिन आज मैं इस विशाल जन सैलाब के सामने एनकाउंटर करने वाला हूं। इसके बाद वह अपने कलम रूपी खंजर से गोखले को मार डालता है। फिर वह जेल में कहता है कि नयी पीढ़ी की जिम्मेदारी है कि वह ऐसे करप्ट लोंगो का एंनकाउंटर करती रहे। अच्छी फिल्म है देखनी चाहिए।
निर्देशक: एजाज गुलाब
कलाकार: नाना पाटेकर, गुल पनाग, विक्रम गोखले, गोविंद नामदेव
संगीत: राज जुत्शी, संजीव चौटा





बदलापुर

फिल्म समीक्षा
बचकाने बदले की बदलापुर 
धीरेन्द्र अस्थाना
बड़ी अजीबोगरीब, तर्कहीन और बेसिर पैर की फिल्म है बदलापुर। दो स्टार इसलिए दिए हैं क्योंकि फिल्म में दो बेहतरीन गाने और नवाजुद्दीन जैसे सपोर्टिंग आर्टिस्ट का कमाल का अभिनय है। नवाज नेगेटिव किरदार में है लेकिन पूरी फिल्म में वही छाया हुआ है। अपने किरदार में पूरी तरह घुस जाना और बिल्कुल किरदार जैसा हो जाना इसे एक्टिंग के संसार में कायांतरण कहते हैं। नवाज ने इस कायांतरण कला को साध लिया है।  फिल्म को नवाज के अभिनय के कारण ही देखा जा सकता है। वरूण धवन फिल्म का हीरो है लेकिन अपनी करतूतों से वह विलन के रूप में बदलता नजर आता है। प्रतिशोध में भरे हुए व्यक्ति के चरित्र को वह साध नहीं सका है। असल मंे उसके चरित्र में ही नहीं पूरी पटकथा में ही काफी सारे झोल हैं। फिल्म को ठीक से सोचा ही नहीं गया है। दूसरी तरफ नवाज विलेन है लेकिन अपनी कुर्बानी से वह दर्शकों की सहानुभूति बटोर ले जाता है। एक हत्यारे को महानता का, संवेदनशीलता का और इंसानियत का चोला पहना कर निर्देशक कौन सा नया सिद्धांत गढ़ना चाहते हैं यह समझ से परे है। फिल्म का आरंभ अच्छा हुआ था। नवाज और विनय पाठक एक बैंक लूटने के बाद वरूण धवन की पत्नी की कार में धुस जाते हैं। तेज चलने की वजह से अचानक कार का दरवाजा खुल जाता है और यमी का बेटा सड़क पर गिर जाता है। यमी के शोर मचाने और प्रतिवाद करने के कारण कार चलाता नवाज यमी को गोली मार देता है। फिर वह अपने साथी विनय पाठक को एक मोड़ पर उतार कर गाड़ी भगा ले जाता है। आखिर पुलिस की दो गाड़ियां उसे घेर लेती हैं। नवाज को बीस साल की जेल होती है। जेल से पहले कस्टडी में बहुत पिटने के बाद भी वह अपने पार्टनर का नाम नहीं बताता है। जेल में रहते हुए नवाज को केंसर हो जाता है। अब तक वह सजा के पंद्रह साल पूरे कर चुका है। इस बीच वरूण भी पुणे छोड़ मुंबई के बदलापुर उपनगर में बस चुका है। नवाज एक साल के भीतर मरने वाला है। कैदियों के लिए काम करने वाली एक संस्था की अध्यक्ष दिव्या दत्ता वरूण धवन के पास इस आशय से पहुंचती है कि वह नवाज को मा फ कर दे ताकि नवाज जेल में नहीं अपने घर में मर सके। वरूण मना कर देता है लेकिन जब नवाज की मां वरूण को नवाज के पार्टनर का नाम और पता ठिकाना बताने का वायदा करती है तो वरूण माफी नामा लिख देता है। नवाज जेल से रिहा हो जाता है। वह रिहा हो कर विनय पाठक के होटल पहुंचता है जहां उसे पता चलता है कि विनय पाठक और उसकी पत्नी राधिका आप्टे पांच दिन से गायब हैं। नवाज के वहां पहुंचने से पांच दिन पहले वरूण विनय पाठक और उसकी पत्नी का मर्डर कर लाशें जमीन में गाड़ चुका होता है। बैंक डकैती का जो ढाई करोड़ रूपया नवाज को मिलना होता है वह वरूण ले जाता है। नवाज वरूण से मिलने जाता है तो वरूण उसे बता देता है कि उसने नवाज के दोस्त और उसकी बीबी को मार कर कहां गाड़ा है। नवाज उसे बताता है कि उसकी पत्नी पर गोली विनय ने नहीं नवाज ने चलायी थी। इसके बाद नवाज पुलिस में समर्पण कर देता है और विनय पाठक के कत्ल का इल्जाम अपने सिर ले लेता है। तब नवाज की प्रेमिका हुमा कुरैशी वरूण के पास पहुंचती है और कहती है नवाज ने तुम्हें माफ करके जीवन जीने का दुसरा मौका दे दिया है। लेकिन इस मौके का तुम करोगे क्या? अब तो तुम्हारा बदला भी पूरा हो गया है। इसके बाद पिक्चर समाप्त हो जाती है। 
निर्देशक: ़श्री राम राघवन
कलाकार: वरूण धवन, हुमा कुरैशी, यमी गौतम, नवाजुद्दीन
संगीत: सचिन-जिगर





Sunday, February 15, 2015

रॉय

फिल्म समीक्षा

प्यार जिंदगी में और पर्दे पर: रॉय 

धीरेन्द्र अस्थाना

जैसे सपने के भीतर एक सपना होता है, उसे सिर्फ मेहसूस करना होता है। उस एहसास को समझाना बहुत जटिल होता है। उसी तरह कई फिल्में भी अपनी बुनावट के स्तर पर इतनी जटिल और संवेदना के स्तर पर इतनी महीन होती हैं कि उनके बारे में तय करना मुश्किल हो जाता है कि उन्हें किस कैटेगरी में रखा जाए। बॉलीवुड में तो दो ही कैटेगरी प्रचलित हैं। फिल्म मासी है या क्लासी? मतलब आम दर्शक के लिए है या खास दर्शक के लिए। जाहिर है कि रॉय आम दर्शक के लिए नहीं है। जो आम दर्शक सिनेमाघर में भारी संख्या में आ गये थे वे रणबीर कपूर के झांसे में आ गये थे। उन बेचारों को मालूम नहीं था कि फिल्म उनके सिर के उपर से गुजरने वाली है। इसीलिए सिनेमाघर के एक चौथाई दर्शक इंटरवल में भाग गये और एक चौथाई फिल्म खत्म होने से आधा घंटा पहले ही निकल गये ।तो क्या जिन्होंने पूरी फिल्म को देखा वे बुद्धिमान दर्शक थे? उनकी बातचीत से लगा कि वे फिल्म को समझने की कोशिश कर रहे थे। मगर यही वह जगह है जहां रूक कर यह कहना पड़ रहा है कि हिंदी सिनेमा के साथ यह कितनी बड़ी ट्रेजेडी है कि सिनेमा तो आगे बढ़ गया है लेकिन उसका आम दर्शक पीछे ही छूटा रह गया है। यह विरोधाभास कैसे सधेगा और इस विरोधा भास के बीच हम हिंदी फिल्मों से ऑस्कर पाने की उम्मीद भी रखते हैं। जो भी हो दर्शकों को फिल्म बिल्कुल समझ नहीं आयी। ऐसा सिनेमाघर में फिल्म देखने के दौरान उनकी खीझी हुयी प्रतिक्रियाओं से पता चल रहा था। जबकि फिल्म को समझने का नुक्ता बेहद मामूली था। अर्जुन रामपाल मुख्य धारा सिनेमा का सफलतम डायरेक्टर है। वह कमर्शियल फिल्में बनाता है जो करोड़ों कमाती है उसकी बनायी गन और गन टू सुपर हिट हो चुकी हैं। अब वह गन थ्री पर काम कर रहा है। पटकथा लिखनी अभी बाकी है। इसके बावजूद गन थ्री के लिए प्रोड्यूसर मिल चुका है। सिगरेट, शराब, रोमांस अर्जुन का शगल है। रिश्तों को लेकर ना तो वह गंभीर है ना ही कमिटेड। गन थ्री की शूटिंग के लिए वह मलेशिया जाता है जहां इत्तेफाक से आयशा यानी जैकलीन जैसी क्लासी फिल्म बनाने वाली डायरेक्टर भी अयी हुयी है। अर्जुन के पास पटकथा नहीं है लेकिन आयशा के साथ अफेयर होते ही उसे अपनी कहानी मिल जाती है। वह आयशा के साथ मोहब्बत करने के साथ साथ रणबीर कपूर की कहानी पर पटकथा लिखने और उसे शूट करने में लग जाता है। रणबीर एक इंटरनेशनल चोर है जो गन थ्री में एक पेंटिग चुराने के मिशन पर है। असल में यह फिल्म के भीतर फिल्म वाली तकनीक पर बनी कथा है। एक दिन आयशा अर्जुन की फिल्म की पटकथा पढ़ लेती है और उसकी जिंदगी से निकल जाती है। आयशा को लगता है कि अर्जुन उसकी जिंदगी पर फिल्म बना रहा है। आयशा के जाते ही फिल्म की पटकथा भी रूक जाती है और शूटिंग भी। कुछ उपकथाओं के बाद फिल्म की बाकी पटकथा लिखी जाती है और फिल्म फिर से शूट हो कर पूरी होती है। फिल्म पूरी होने के साथ ही जीवन में अर्जुन और पर्दे पर रणबीर की लव स्टोरी को एक सुखांत मिलता है। जैकलीन का डबल रोल है। वह अर्जुन की आयशा है जो खुद भी एक डायरेक्टर है। वह रणबीर की टिया है जो पेंटर और आर्ट कलेक्टर है। उसी के घर से रणबीर पेंटिग चुरा ले गया है जिसे अंत में लौटा कर वह अपना प्रेम पा लेता है। बड़ी ही मर्मस्पर्शी लेकिन बारीक सी फिल्म है जिसे देख कर दिमागी स्तर पर बड़ा सुकून सा मिलता है कि कुछ जुनूनी लोग हैं जो संजीदा सिनेमा को ले कर संजीदा हैं। अच्छी बात है कि अब ऐसे लोगों को भी प्रोड्यूसर मिलने लगे हैं। फिल्म के सारे गाने पहले से ही सुपर हिट है।ं एक बार तो देखो भाई लोगो। सभी कलाकारों ने बेहतरीन काम किया है।
निर्देशक: विक्रमजीत सिंह
कलाकार: रणबीर कपूर, जैकलीन फर्नांडिस, अर्जुन रामपाल, अनुपम खेर
संगीत: अंकित तिवारी, मीत ब्रदर्स





Wednesday, February 11, 2015

शमिताभ

फिल्म समीक्षा
अवाक कर देगी शमिताभ 
धीरेन्द्र अस्थाना
अभिनय के शहंशाह अमिताभ बच्चन का नया करिश्मा। निर्देशक आर. बाल्की की प्रतिभा का सिनेमाई विस्फोट। फिल्म शमिताभ मात्र एक फिल्म नहीं है वह सिनेमा के जादुई यथार्थवाद का एक नया पाठ है। वह निर्देशन का भी नया शिखर है जिसे अमिताभ के अभिनय ने चकाचौंध कर दिया है। सिनेमा के आम दर्शक फिल्म देखने नहीं भी आ सकते हैं पर ऐसा करके वह अपना ही नुकसान कर रहे होंगे। कम से कम बिग बी के नये अंदाज और कमाल के परफार्मेंस के लिए दर्शकों को यह फिल्म अवश्य देख लेनी चाहिए। इससे उन्हें पता चलेगा कि महानायक कोई यूं ही नहीं बन जाता। फिल्म पा के बाद निर्देशक बाल्की ने एक नया चमत्कार किया है। फिल्म के भीतर फिल्म की तकनीक पर खड़ी शमिताभ आपको अवाक कर देगी। दर्शक भले ही ज्यादा नहीं थे मगर पूरी फिल्म लगभग पिन ड्राप साइलेंस वाले वातावरण में देखी गयी। सभी की आंखें पर्दे पर गड़ी थीं। कोई दर्शक एक भी सीन छोड़ना नहीं चाहता था। बहुत जटिल फिल्म होने के बावजूद पूरी पटकथा कसी हुयी और तराशी हुयी बन पड़ी थी। उपर से धनुष और अक्षरा की युवा जोड़ी ने भी फिल्म को अपने अपने अंदाज से नयी उंचाई देने में कामयाबी पाई। अभिनय के बाद फिल्म की यूएसपी उसके संवाद हैं जो रोमांच से भर देते हैं। फिल्म की अनूठी कहानी कुछ इस प्रकार है। धनुष मुंबई से कुछ दूर इगतपुरी नामक कस्बे में रहने वाला एक गूंगा बच्चा है जिसे फिल्में देखने और एक्टर बनने का जुनून है। मां के मरने के बाद वह मुंबई चला आता है। जहां काफी संघर्ष के बाद एक प्रसिद्ध निर्देशक की सहायक अक्षरा की नजर उसकी प्रतिभा को पहचान लेती है। वह धनुष के कुछ एक्टिंग सीन शूट कर के उन्हें अपने निर्देशक को दिखा कर यह साबित करने में तो सफल हो जाती है कि धनुष की एक्टिंग में जान है। अब समस्या है आवाज की। धनुष तो गूंगा है। निर्देशक उसे फिनलैंड लेकर जाता है जहां आवाज के एक बड़े अस्पताल में धनुष के गले का ऑपरेशन होता है। इस की सफलता में एक समस्या यह है कि यंत्र की सहायता से धनुष वही बाल सकेगा जो कोई दूसरा आदमी उसके लिए बतौर प्रोक्सी बोलेगा। अब खोज होती है प्रभावशाली आवाज की। यह आवाज है अमिताभा बच्चन की जो चालीस साल पहले बॉलीवुड में एक्टर बनने आए थे लेकिन भारी आवाज के कारण ठूकरा दिए गये थे। एक प्रोफेशनल अनुबंध के बाद आवाज के लिए अमिताभ को तय किया जाता है और धनुष को नाम दिया जाता है शमिताभ। धनुष की पहली ही फिल्म अमिताभ की आवाज के कारण सुपरहिट हो जाती है और वह रातों रात सुपर स्टार बन जाता है। शराब में अपनी जिंदगी गर्क कर चुके असफल हीरो अमिताभ को जब पता चलता है कि हर जगह उन्हें धनुष के नौकर रॉबर्ट के रूप में पेश किया जा रहा है तो वे आहत हो जाते हैं। वे धनुष का काम छोड़ देते हैं। धनुष जमीन पर आ जाता है। अमिताभ की आवाज के बिना वाली उसकी जिद में बनी गूंगी फिल्म फ्लॉप हो जाती है। उसका ईगो धूल धूसरित हो जाता है। अक्षरा फिर से दोनों का मिलन कराती है। इसके बाद क्या होता है यह जानने के लिए फिल्म देखिए वर्ना उसका जादू धुंधला पड़ जाएगा। फिल्म में अमिताभ की आवाज में एक गाना भी फिल्माया गया है जिसकी परिकल्पना नयी है। एक बेहतरीन और कमाल की फिल्म।

निर्देशक : आर. बाल्की
कलाकार : अमिताभ बच्चन, धनुष, अक्षरा हसन
संगीत : इलियाराजा





हवाईजादा

फिल्म समीक्षा
जिद और जुनून की उड़ान : हवाईजादा 
धीरेन्द्र अस्थाना
आज के दौर में जब डबल मीनिंग वाले नहीं सिंगल मीनिंग वाले अश्लील संवादों को सेंसर पास कर रहा हो, हवाईजादा जैसी फिल्म बनाना जुनून ही तो है। न मारधाड़, न सेक्स, न आईटम सांग, न गालियां। दर्शक क्यूं आते? एक संजीदा और मकसद के लिए बनी फिल्म का बैंड बज गया। कुल जमा पच्चसी तीस दर्शक जबकि इसी के साथ रिलीज खामोशियां पर दर्शक जुट रहे थे। वह एडल्ट फिल्म है। सन 1895 के गुलाम भारत के समय में खड़ी बहुत धीमी गति वाली हवाईजादा को इस मकसद से बनाया गया है कि आज के दर्शक यह जान सकें कि राइट बंधुओं के हवाईजहाज उड़ाने से आठ साल पहले मुंबई के एक युवक तलपदे ने दुनियां का पहला जहाज बना कर उसमें उड़ान भरी थी। जबकि पहली हवाई उड़ान का श्रेय विदेश के राइट बंधुओं के नाम दर्ज है। इतने रूखे, वैज्ञानिक विषय में रोचकता भरने के लिए निर्देशक ने उसमें एक प्रेम कहानी भी डाली है और कुछ गाने भी रखे हैं। फिल्म अपने मकसद के कारण अच्छी है लेकिन उसका इंटरवल से पहले वाला हिस्सा इतना स्लो हो गया है कि बोरियत की हद को छू लेता है। सन 1895 का समय, संस्कृति और परिवेश की रचना भी निर्देशक की परिकल्पना का कमाल है। जाहिर है तब का मुंबई दर्शाने के लिए सेट ही खड़ा किया गया होगा। आयुष्मान खुराना की एक और महत्वपूर्ण फिल्म। बतौर एक्टर उन्होंने जादू रच दिया है। लेकिन उनके कुछ कॉमिक सीन में साफ पकड़ में आता है कि वह राजकपूर को अपने अभिनय में उतार रहे हैं। दो ही लोगों की फिल्म है। मिथुन चक्रवर्ती और आयुष्मान खुराना की। गुरू के बाद इस फिल्म में मिथुन ने फिर से यादगार अभिनय किया है। विमान बनाने की परिकल्पना उन्हीं की है। अपने इस सपने को आयुष्मान की आंखों में रोप कर वह विदा लेते हैं। इस सपने को आयुष्मान जिद और जुनून की तरह अपने भीतर बसा लेता है। अंग्रेज सिपहसालारों के विरोध के बावजूद वह इस सपने को उड़ान के पंख देता है और बंबई की जनता देखती है कि गुलाम भारत का पहला आजाद नागरिक उड़ रहा है। आयुष्मान के बनाये हवाईजहाज में आयुष्मान और उसकी प्रेमिका पल्लवी शारदा के उड़ने के सीन पर फिल्म समाप्त हो जाती है। इसे अनिश्चित रखा गया है कि जहाज सफलता पूर्वक जमीन पर उतर सका या हवा में ही नष्ट हो गया। क्योंकि आयुष्मान को सिर्फ हवाईजहाज उड़ाने का हुनर पता था। उसे रोकने, मोड़ने या उतारने के ज्ञान से वह वंचित था। पल्लवी शारदा के पास करने को कुछ खास नहीं था तो भी कुछ सीन में अपने खामोश इमोशन से वह प्रभावित करती है। वह थियेटर करती है  और तब थियेटर में काम करने वाली कलाकार को नाचने वाली बाई कहा जाता था जिसका दर्जा वेश्या के समान माना जाता था। इस वेश्या को अपने जीवन में संगिनी का दर्जा दे कर आयुष्मान सामाजिक क्रांति का भी उदघोष करता है। कभी कभार ऐसी फिल्में देखलेने में कोई हर्ज नहीं है जो आपके सामान्य ज्ञान में इजाफा करती हों।

निर्देशक : विभू विरेन्द्रपुरी
कलाकारः आयुष्मान खुराना, पल्लवी शारदा, मिथुन चक्रवर्ती
संगीत : रोचक कोहली, विशाल भारद्वाज




Monday, January 26, 2015

बेबी

फिल्म समीक्षा
गहरी और अर्थपूर्ण: बेबी 
धीरेन्द्र अस्थाना

मुख्यधारा सिनेमा में काम करने की एक अजीब सी टेªजेडी यह है कि आतंकवाद जैसे गंभीर विषय पर फिल्म बनाते हुए भी निर्माता निर्देशक चटपटे मसालों से बच नहीं पाते। निर्देशक नीरज पांडे बाजार में बैठ कर भी बाजारू होने से बचे हुए हैं इसके लिए उन्हें दाद मिलनी चाहिए। उनकी नयी फिल्म भी मसालों से पूरी तरह दूर है। बेबी को उन्होंने अपनी परिकल्पना, सूझबूझ और मंशा के चलते आतकंवाद के खिलाफ एक सार्थक हस्तक्षेप के रूप में ढाल दिया है। यह फिल्म मनोरंजन से बहुत उपर उठकर अंधकार के विरूद्ध प्रकाश की लड़ाई में बदल जाती है। सिनेमा के आम दर्शकों को फिल्म निराश कर सकती है क्योंकि इसमें चालू फिल्मों की तरह हीरोपंती, मारधाड़, आइटम सांग, डबल  मीनिंग वाले डायलॉग वगैरह नहीं हैं। लेकिन सार्थक और गहरी फिल्मों के कद्रदानों के लिए बेबी 2015 का बेहतरीन तोहफा है। शायद इसीलिए हिंदी सिनेमा के अनेक सफल और स्थापित एक्टरों ने इस फिल्म में छोटे छोटे रोल करना स्वीकार किया है। असल में पूरी फिल्म ही अक्षय कुमार के कंधों और चरित्र पर टिकी हुई है। बाकी तमाम कलाकारों को फिल्म के सपोर्टिव एक्टर कहा जा सकता है जो फिल्म को गति देने का काम करते हैं। फिल्म में ईशा गुप्ता का एक आइटम सांग भी है लेकिन जब उसकी बारी आती है तब तक दर्शक थियेटर से निकल रहे होते हैं और पर्दे पर नामावली चल रही होती है। इसलिए उसके होने का भी कोई मतलब नहीं हर जाता है। मधुरिमा तुली कोई बहुत जाना पहचाना नाम नहीं है और उसके करने के लिए भी फिल्म में कुछ खास नहीं था तो भी अक्षय की पत्नी के रोल में वह याद रह जाती है। ऐसी पत्नी जिसे यह भी नहीं पता कि उसका पति करता क्या है और हर समय गायब क्यूं रहता है। वह अक्षय को जब भी फोन करती है बस एक डायलॉग बोलती है: मरना मत। यह निवेदन दर्शकों के अंतःकरण को स्पर्श करता है। फिल्म की हीरोइन साउथ की स्टार तापसी पन्नु है जो फिल्म में अक्षय के साथ होते हुए भी उनका लव इंटरेस्ट नहीं है। वह खुद एक खुफिया अधिकारी हैं जो एक खास मिशन मंे अक्षय को सपोर्ट करती हैं। अपने एक्शन सीन्स में वह प्रभावित करती हैं। बेबी किसी लड़की का नहीं एक मिशन का नाम है जिसे अक्षय कुमार लीड करता है। इस टीम में भारत के बारह खुफिया ऐजेंट होते हैं जिनमें अलग अलग मिशन को अन्जाम देने के दौरान आठ शहीद हो जाते हैं। बचते हैं केवल चार: अक्षय कुमार, अनुपम खेर, तापसी पन्नु और राणा दग्गूबत्ती। के. के. मेनन और सुशांत सिंह जैसे समर्थ अभिनेता छोटे छोटे रोल में आतंकवादी बने हैं। लेकिन दोनों ही अपनी मौजूदगी को प्रभावशाली बना सके हैं। के. के. जैसे एक्टर के खाते में तो एक भी संवाद नहीं आया तो भी वह अपनी बॉडी लैंग्वेज से कमाल रच देते हैं। डैनी डैगंजोग्पा मुंबई एटीएस की चीफ हैं और अपनी भंगीमाओं से फिल्म को विस्तार देते हैं। सबसे अंत में हम अक्षय कुमार को याद करेंगे जिन्होंने बता दिया है कि वह केवल एक्शन या कॉमिक फिल्मों के ही बादशाह नहीं हैं बल्कि अर्थपूर्ण और गहरी फिल्मों को भी अपने दमदार अभिनय से नयी उचांईयां दिला सकते हैं। एक बेहतरीन और कसी हुयी सार्थक फिल्म है। दिमाग को साथ लेकर देखने जाइए।

निर्देशक: नीरज पांडे 
कलाकारः अक्षय कुमार, तापसी पन्नु, अनुपम खेर, के के मेनन, राणा दग्गूबत्ती, मधुरिमा तुली, सुशांत सिंह
संगीत: मीत ब्रदर्स, अनजान 





Monday, January 19, 2015

अलोन


फिल्म समीक्षा
अजब भूत की भ्रमित दास्तान: अलोन 
धीरेन्द्र अस्थाना
जब हम अपने बचपन के दिनों में रहते थे तब कोहरा, महल, बीस साल बाद, वह कौन थी, गुमनाम जैसी रहस्यमय और रोमांचक फिल्में देखा करते थे। ये फिल्में अपनी रोचकता के कारण हिट भी होती थीं। इन सब फिल्मों का एक कॉमन, प्रगतिशील तथ्य यह होता था कि आत्मा की चहलकदमी मानव निर्मित साजिश सिद्ध हो जाती थी। यह छठे सातवें दशक का सिनेमाई यर्थाथ था। वक्त बदला। हम कंप्यूटर युग में उतरे मगर सिनेमा इस मोर्चे पर पिछड़ गया। उसने डर का कारोबार करते करते आत्मा या भूत को सही साबित कर दिया। डर के इस व्यापार को राम गोपाल वर्मा ने अपनी फिल्म भूत से उंचाई पर पहंुचाया और इसके बाद तो भूतों को लेकर उटपटांग फिल्मों का सिलसिला ही चल निकला। अलोन इसी सिलसिले की नयी कडी है जो दर्शकों को डराने के बजाय बेजार और बोर करती है। एक समय था जब बिपाशा बसु की गिनती बॉलीवुड की टॉप टेन अभिनेत्रियों में होने लगी थी लेकिन उन्होंने जिस तरह की थकी और बेतुकी फिल्मों का चुनाव किया उसके चलते उन्हें अलोन जैसी ढीली ढाली और कमजोर फिल्मों का हिस्सा बनना पड़ रहा है। इस फिल्म में वह डबल रोल में हैं। अंजना और संजना नाम की दो जुडवां बहने अपनी किशोर उम्र में करण सिंह से प्यार करती हैं। करण संजना से प्यार करता है जबकि अंजना करण से। करण दस साल बाद लंदन से लौट रहा है। करण को रिसीव करने के लिए संजना एयरपोर्ट जाना चाहती है जबकि अंजना इसमें बाधक बन रही है। संजना अंजना को मार देती है और सर्जरी के जरिए अपना बदन अंजना से अलग कर लेती है। अंजना की लाश घर के आउट हाउस में गाड़ दी जाती है। संजना का विवाह करण के साथ हो जाता है। दोनों मुंबई में रहते हैं जबकि संजना का मायका केरल में है। मां बीमार पड़ती है और संजना तथा करण को वापस केरल जाना पड़ता है जहां से संजना भाग कर आयी थी क्योंकि वहां अंजना की ढेर सारी यादें है। केरल प्रवास में संजना के पीछे अंजना की आत्मा पड़ जाती है। आवाजों और दृश्यों से निर्देशक ने दर्शकों को डराने की बहुत कोशिश की लेकिन कामयाब नहीं हो पाये। दर्शक डर के दृश्यों में हंस रहे थे। फिर अंजना का भूत संजना के जिस्म में प्रवेश कर जाता है और करण के साथ अपनी हवस को शांत करता है। करण समझता है कि यह उसकी बीबी संजना है जबकि होती वह अंजना है। फिर एक तांत्रिक संजना के जिस्म से अंजना का भूत तो उतार देेता है लेकिन उस भूत को नष्ट नहीं कर पाता। फिल्म के अंत में जब इस भूत को नष्ट कर दिया जाता है तब यह रहस्योद्घाटन होता है कि संजना ने अंजना को नहीं बल्कि अंजना ने संजना को मारा था और संजना बन कर करण से विवाह किया था। करण अंजना के साथ रहने से मना कर देता है क्योंकि उसने तो संजना से प्यार किया था। अंजना करण को मारने के लिए चाकू निकाल लेेती है। संजना की आत्मा अंजना को आग में जला देती है और करण को बचा लेती है। यह सवाल अनुत्तरित है कि अगर अंजना जिंदा रह गयी थी तो बुरे काम क्या संजना जैसी अच्छी आत्मा कर रही थी? फिल्म देखनी है या नहीं यह दर्शकों के अपने विवके पर है।

निर्देशक: भूषण पटेल
कलाकारः करण सिंह ग्रोवर, बिपाशा बसु, जाकिर हुसैन
संगीत: अंकित तिवारी, जीत गांगुली